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सांख्य शास्त्र
महाभारत में शान्तिपर्व के अन्तर्गत सृष्टि, उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय और मोक्ष विषयक अधिकांश मत सांख्य ज्ञान व शास्त्र के ही हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि उस काल तक (महाभारत की रचना तक) वह एक सुप्रतिष्ठित, सुव्यवस्थित और लोकप्रिय एकमात्र दर्शन के रूप में स्थापित हो चुका था।
एक सुस्थापित दर्शन की ही अधिकाधिक विवेचनाएँ होती हैं, जिसके परिणामस्वरूप व्याख्या-निरूपण-भेद से उसके अलग-अलग भेद दिखाई पड़ने लगते हैं। इसीलिए महाभारत में तत्त्वगणना, स्वरूप वर्णन आदि पर मतों की विविधता दृष्टिगोचर होती है।
यदि इस विविधता के प्रति सावधानी न बरती जाय तो कोई भी व्यक्ति प्रैंकलिन एडगर्टन की तरह यही मान लेगा कि महाकाव्य में सांख्य संज्ञा किसी दर्शन विशेष के लिए नहीं वरन् मोक्ष हेतु 'ज्ञानमार्ग' मात्र के लिए ही प्रयुक्त हुआ है।इस प्रकार की भ्रान्ति से बचने के लिए सांख्य दर्शन की विवेचना से पूर्व 'सांख्य' संज्ञा के अर्ध पर विचार करना अपेक्षित है।
सांख्य' शब्द का अर्थ सांख्य शब्द की निष्पत्ति संख्या शब्द से हुई है। संख्या शब्द 'ख्या' धातु में सम् उपसर्ग लगाकर व्युत्पन्न किया गया है जिसका अर्थ है 'सम्यक् ख्याति'। संसार में प्राणिमात्र दु:ख से निवृत्ति चाहता है। दु:ख क्यों होता है, इसे किस तरह सदा के लिए दूर किया जा सकता है- ये ही मनुष्य के लिए शाश्वत ज्वलन्त प्रश्न हैं। इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ना ही ज्ञान प्राप्त करना है।
कपिल दर्शन' में प्रकृति-पुरुष-विवेक-ख्याति (ज्ञान) 'सत्त्वपुरुषान्यथाख्याति' इस ज्ञान को ही कहा जाता है। यह ज्ञानवर्धक ख्याति ही 'संख्या' में निहित 'ज्ञान' रूप है। अत: संख्या शब्द 'सम्यक् ज्ञान' के अर्ध में भी गृहीत होता है। इस ज्ञान को प्रस्तुत करने या निरूपण करने वाले दर्शन को सांख्य दर्शन कहा जाता है।
ॐनमोंभगवते_वासुदेवाय