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वेद वाणी
रथ चक्र के समान धन की स्थिति चलायमान है, ये धन एक से दूसरे, तीसरे के पास आता जाता रहता है!
(पृणीयादिन्नाधमानाय तव्यान्द्राघीयांसमनु पश्येत पन्थाम्!
ओ हि वर्तन्ते रथ्येव चक्रान्यमन्यमुप तिष्ठति राय:!
ऋग्वेद १०/११७/५/
नाव में पानी आजाने पर दोनों हाथों से निकाल देना चाहिए अन्यथा वह डूब सकती है! इसी प्रकार गृहस्वामी को घर में धन की वृद्धि हो जाने पर उसे विद्या, धर्म, परोपकार, वेद प्रचार, अनाथालय, चिकित्सालय, एवं राष्ट्र निर्माण के कार्य में दान कर देना चाहिए! क्योंकि धन की तीन गतियाँ होती है!
दान__भोग__नाश
जो न तो दान देता है और न उसका उपभोग करता है उसका नाश अवश्यम्भावी है!
जीवन बहुत लम्बा है, जो व्यक्ति धनवान होकर भी दानी नहीं है उसकी गति निम्न प्रकार की हो जाती है! व्यक्ति को जीवन पथ का विचार करना चाहिए कि आज यदि वह धनवान है तो कल निर्धन भी हो सकता है! दान देना मानो जीवन यात्रा के लिए पाथेय (मार्ग के लिए भोजन) का संग्रह करना है, देने वाले को परमात्मा भी देता है!
सब एश्वर्य का देने वाले परमात्मा यज्ञ कर्ता, उपदेशक, शिक्षक को समीप होकर धन देता है, परमात्मा सबसे बड़ा याज्ञिक है हृदय में विराजित हुआ अधर्म से दूर रहने की प्रेरणा देता है! वह दानी व्यक्ति के धन भण्डार को बार बार भरता है और उसे अखण्ड धन(मोक्ष) का स्वामी बना देता है! सब दिन समान नहीं होते हैं धन रथ के चक्र की भांति भ्रमणशील है! यदि तालाब का पानी एक स्थान पर संचित हो जाने पर उसमें दुर्गंध उठने लगती है और कालांतर में सूख जाता है उधर नदियाँ पहाडों से प्रवाहित हो हजारों मील की यात्रा कर भूमि की प्यास बुझाती और गति मान रहने से सबने नहीं पातीं है! इसी भांति जिस धन का दान दिया जाता है उसका प्रवाह बना रहता है!
ओ३म् भूर्भुवः स्वः! तत्स वितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।।
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हे प्रभु ओ३म् मैं आपकी शरण में आगया हूँ।
क्योंकि समस्त दुःखों से आप ही हमें बचाने और छुड़ाने हारे हैं,संसार के और अपने सब सुख हमें दिलाने वाले हैं आप ही हम सबके जीवनों के हेतु हैं।
हे ओ३म् -हम सबके रक्षक प्राणों के प्राण- प्राण प्रिय प्रभो! आपकी उपस्थिति में मैं उपस्थित हो गया हूँ आपकी सुरक्षा में सुरक्षित पा रहा हूँ
आपकी समीपता को अनुभव कर रहा हूँ आपके ज्ञान से आनंद से ओतप्रोत होना चाहता हूँ। मेरे प्रभो! हमारी समस्त अविद्या को नष्ट कर विद्या से प्रकाशित कर दीजिए, हमें अपना प्रिय पुत्र स्वीकार कर लीजिए। आप पिता के चरणों में यही प्रार्थना है हमें सद्बुद्धि प्रदान कीजिये जिससे सदैव सुपथ पर चल आपकी वेद वाणी से जीवन को सजाते हुए निष्कामकर्मी बन आपके परमानन्द को प्राप्त कर सकें।
प्रभो दया कीजिये, दया कीजिये, दया कीजिये।
*प्राणों के हे प्राण पिताजी*
*दु:खहर्ता सुखरूप पिताजी*
*वरण करें दिव्य तेज तुम्हारा*
*कष्ट क्लेश मिटावन हारा*
*बुद्धि करो विमल हे पावन*
*शुभकर्मी बन भर लें दामन*
*मांग रहे प्रभु कृपा तुम्हारी*
*सुनलो भगवन विनय हमारी*
पति पत्नी वेद के उपदेश के स्वाध्याय द्वारा अपने जीवन पथ को आलोकित करें!
(उष्टारेव फर्वरेषु श्रयेथे प्रायोगेव श्वात्रया शासुरेथ:!
दूतेव हि ष्ठो यशसा जनेषु माप स्थातं महिषेवावपानात्!!
हे दम्पत्ति! तुम दोनों श्रद्धा से किसी सिद्ध महात्मा के पास संतान धन एवं गृहस्थ धर्म के उपदेश के लिए मार्ग दर्शन लो!
जैसे दूत राजा को संदेश पहुचाकर कृपा पात्र बनते हैं वैसे तुम लोग भी यश कीर्ति से प्रिय बनो, जैसे भैसें पानी के तालाब में जाकर बाहर आना नही चाहतीं वैसे तुम दोनों ज्ञाना मृत के पान से पृथक न हो वो!
गृहस्थ आश्रम राष्ट्र निर्माण का कारखाना है जहाँ सुयोग्य बच्चों का निर्माण होता है, उन्हें राष्ट्र सेवा के लिए भेजा जाता है! जितेन्द्रिय दम्पति ही गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करके, कौशल्या जैसी माँ, श्रीकृष्ण और माता रुक्मिणी के समान प्रद्युम्न जैसे वीर पराक्रमी पुत्र और शिवाजी जैसे शूरवीर योद्धा के लिए माँ जीजाबाई जैसी वीरांगना माँ होनी चाहिए!
योग्य संतान के अतिरिक्त पुरुषार्थ चतुष्टय के लिए गृहस्थ आश्रम की मर्यादा में अपने को बांधते है!
जहाँ आध्यात्मिक प्रवचन होतें हो, वहाँ अवश्य जाओ! सत्संग की महिमा सभी ने गाई है
संतान तभी सदाचारी और पुरुषार्थी बनती है, जब माता पिता स्वयं इन गुणों से विभूषित होगें! (कीर्तिर्यस्य से जीवति) जिनके गुणों का गौरव गाथा लोग करते हैं उन्ही का जन्म सफल है!
सत्संगतबुद्धि की जडता को दूर करती है! वाणी सत्य, मान सम्मान की प्राप्ति, चित्त प्रसन्न , सद्गुणों की प्राप्ति, और मूर्ख भी विद्वान बन जाता है! अत: गृहस्थ आश्रम की सफलता विद्वानों के उपदेश एवं सत्संग से ही है!