Social Activist | Posted on | news-current-topics
| Posted on
यूक्रेन जहां इस हमले को रूस की ज्यादती और दबंगई बता रहा है वहीं इसे जायज कार्रवाई बताने वाले रूस के तर्कों की अनदेखी भी नहीं की जा सकती। दरअसल रूसी आबादी की बहुलता वाले और कभी रूस का ही एक हिस्सा रहे यूक्रेन के अमेरिका की अगुवाई वाले नाटो गुट में शामिल होने पर रूस को आपत्ति है। क्योंकि उसके मुताबिक पश्चिमी देशों द्वारा नाटो का गठन ही सोवियत संघ के खिलाफ़ किया गया था। हालांकि इसीलिये सोवियत संघ के विघटन के बाद नाटो की वह सार्थकता भी ख़त्म हो जाती है। पर अमेरिकी नेतृत्व में इसका विस्तार ज़ारी रहा। और आज नाटो में तीस देश शामिल हैं।
पिछले दिसंबर, 2021 में यूरोप की पूर्वी और रूस की पश्चिमी सीमा के बीच स्थित यूक्रेन ने नाटो देशों में शामिल होने की बात की थी। जिसके बाद से ही रूस का रवैया उसके प्रति बदल गया, और लाखों रूसी सैनिकों को यूक्रेन सीमा पर तैनात कर दिये गये। इस युद्ध की आशंका ने तभी सिर उठाना शुरू कर दिया था।
रूस यूक्रेन से करीब दो हजार किलोमीटर की सीमा साझा करता है। और इसमें कोई दो राय नहीं था कि यूक्रेन के 'नाटो' में शामिल होने से रूस के सामरिक हित बुरी तरह प्रभावित होते। जो रूस को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं था। और इसे लेकर रूस पिछले काफी समय से पश्चिमी देशों को चेतावनी भी दे रहा था। पर अफगनिस्तान में बुरी तरह असफल रहा अमेरिका अपनी खीझ मिटाने के लिये अब रूस को घेरना चाहता है। इसीलिये फ्रांस और जर्मनी जैसे तमाम नाटो देशों द्वारा लाख समझाने के बावज़ूद वह यूक्रेन को नाटो में शामिल करने की अपनी जिद पर अड़ा रहा जिसकी परिणति आज एक भयावह युद्ध के रूप में हुई है।
यह पहली बार नहीं है जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया हो। इससे पहले 2014 में रूस ने यूक्रेन पर धावा बोलकर क्रीमिया पर कब्जा कर लिया था। इसका कारण था यूक्रेन का यूरोपियन यूनियन में शामिल होने का फ़ैसला।
रूस के यूक्रेन पर हमले से नब्बे के दशक में शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद से एक हो रही दुनिया के फिर से दो ध्रुवों में बंट जाने की आशंका है। अमेरिका व ब्रिटेन आदि पश्चिमी देशों द्वारा प्रतिबंध लगाये जाने के बाद ज़ाहिर है कि रूस और चीन की नजदीकियां बढ़ेंगी। पिछले कुछ दशकों से पूंजीवादी देशों के सामने कमजोर पड़ रहा साम्यवादी धड़ा विश्व-पटल पर एक बार फिर मजबूत होकर उभरेगा। इससे दुनिया पर चला आ रहा एकछत्र अमेरिकी वर्चस्व ख़त्म भी हो सकता है।
ऐसे में भारत जैसे देशों के लिये अपना रूख़ स्पष्ट करना खासा मुश्किल हो जाता है। जिसके पचास फ़ीसदी से ज्यादा रक्षा-सौदों में रूस की हिस्सेदारी हो। पर जिसकी अर्थव्यवस्था के ठीक-ठाक चलते रहने के लिये अमेरिकी कृपादृष्टि भी अपरिहार्य हो। फिलहाल भारत ने यूक्रेन मुद्दे पर ख़ामोश रहने की नीति अपनाई है, जो कि उचित ही है। लेकिन आज भारत की प्राथमिकता है यूक्रेन में फंसे अपने हजारों नागरिकों को वहां से सुरक्षित निकालना।
0 Comment